भाद्रपद कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को मनाया जाने वाला पर्व बछवारस, जिसे वत्स द्वादशी भी कहते हैं, पुत्रवती स्त्रियों द्वारा अपने पुत्र की मंगलकामना और सुख-समृद्धि के लिए किया जाता है। इस दिन गाय और उसके बछड़े की पूजा की जाती है, जो मां और संतान के बीच के अटूट बंधन का प्रतीक है।
Table of contents
बछवारस का महत्व
बछवारस का संबंध श्रीकृष्ण के जीवन की एक घटना से जुड़ा है। माना जाता है कि इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण पहली बार वन में गाय और बछड़ों को चराने गए थे। इस पर्व में गाय और बछड़े की पूजा कर, मातृत्व और संतान के महत्व को दर्शाया जाता है।
पूजा विधि
आवश्यक सामग्री
- मिट्टी (गाय और बछड़े का प्रतीक बनाने के लिए)
- भैंस का दही
- मोठ और बाजरा
- घी, चीनी
- रोली, चावल
- धोती, ब्लाउज (उजमन के लिए)
पूजा प्रक्रिया
- मूर्ति निर्माण: मिट्टी से गाय और बछड़े की मूर्ति बनाएं।
- पूजा विधि:
- मूर्ति पर जल अर्पित करें।
- भैंस का दही, भिगाए हुए मोठ और बाजरा चढ़ाएं।
- आटे और घी की गोली बनाकर मूर्ति को समर्पित करें।
- रोली और चावल से तिलक करें।
- दक्षिणा अर्पित करें।
- बायना: मोठ और बाजरे का बायना निकालें और सासू माँ के चरण स्पर्श कर उन्हें अर्पित करें। नंदों को भी बायना भेजें।
- विशेष नियम:
- इस दिन केवल बाजरे की ठंडी रोटी खाएं।
- गाय का दूध, दही, चावल और चीनी का सेवन न करें।
व्रत कथा: साहूकार और गाय के बछड़े की कथा
तालाब निर्माण और बलि
एक साहूकार था जिसके सात बेटे थे। साहूकार ने एक तालाब बनवाया लेकिन बारह वर्ष तक वह तालाब भरा नहीं साहूकार ने पण्डितों से पूछा कि मेरा तालाब क्यों नहीं भरता। तंब पण्डित ने कहा कि बड़े बेटे की बलि या बड़े पोते की बलि चढ़ाने से तालाब भरेगा। तब साहूकार ने अपनी बड़ी बहू को पीहर भेज दिया और बड़े पोते की बलि चढ़ा दी। तब घन-घोर छटा छाई और तालाब भर गया।
गाय का बछड़ा और दासी की गलती
साहूकार पूजा करने जाने लगा तो लोग भी तालाब की पूजा करने जाने लगे। जाते समय अपनी दासी से बोले गीऊंला धानुला (चने मोठ) बना लियो । साहूकार के गाय के बच्चे का नाम भी गीऊंला धनुला था। तब उस दासी ने गाय के बच्चे को गीऊंला धानुला समझ कर पका दिया।
चमत्कार और गाय की ममता
साहूकार साहूकारनी ने गाजे-बाजे से तालाब पूजा और वहां पर साहूकार के बेटे की बहू थी। बाद में कुछ लोगों ने तालाव पूजा और बच्चे कूदने लगे तब जिस पोते की बलि दी थी वह भी गोबर में लिपटा मिला और बोला मैं भी तालाब में कूदूंगा। ससुर बोला कि मैंने तो पोते की बलि दी थी। तब तालाब भरा है।
लेकिन हमारी तो लाज गाय माता ने रख ली। जिसने हमारा पोता वापस दे दिया और घर वापस आकर दासी से पूछा कि गाय का बच्चा कहां है ? तब दासी बोली कि आप गेऊला धानुला को पकाने के लिए कह गए थे मैंने तो पका लिया। तब साहूकार दासी से बोला कि पापनी तूने यह क्या पाप हमारे लगाया है। एक पाप तो उतार कर आए थे उससे पहले दूसरा लगा दिया।
फिर साहूकार साहूकारनी उलटे पड़ गए और सोचा कि अब गाय आएगी तो उसको क्या जबाव देंगे। पीछे साहूकार ने एक हंडिया में गाय के बच्चे को डालकर एक गड्ढे में दबा दिया। शाम को जंगल में से गाय आई और बच्चे को नहीं देखकर चिल्लायी और हंडिया खोदनेलगी। तब उसमें से उसका मिट्टी में लिपटा हुआ उसका बच्चा निकला तब किसी ने साहूकार से आकर कहा तेरा गाय का बच्चा आ रहा है।
तब साहूकर बोला कि मेरा गाय का बच्चा कहां से आएगा। बच्चा तो जमीन में गढ़ा हुआ है। तब सबने कहा कि चलकर देखो तो साहूकार ने देखा कि सचमुच ही गाय का दूध चूसता हुआ आ रहा है। तब साहूकार ने छिंढ़ौरा पिटवा दिया कि सब कोई बेटों की मां इस दिन ठण्डी चीज खायें। गाय बच्चे की पूजा व उजमन करें। तालाब पूजें और पट्टे की पूजा करके बायना निकालें। हे बछवारस माता जैसे उनको फल दिया वैसा कहने सुनने वाले को भी देना।
पर्व के नियम और अनुष्ठान
- उजमन:
- जिस परिवार में इस साल पुत्र का जन्म या विवाह हुआ हो, वे इस पर्व का उजमन करते हैं।
- मोठ-बाजरे से थाली सजाकर सासु माँ को अर्पित करें।
- तालाब पूजा:
- तालाब की पूजा के समय गीत गाएं और ब्राह्मणी को नेग दें।
- भोजन:
- इस दिन ठंडी चीजें खाएं और गरम चीजों का सेवन न करें।
FAQs: बछवारस (वत्स द्वादशी)
1. बछवारस का पर्व कौन मनाता है?
यह पर्व पुत्रवती स्त्रियाँ अपने पुत्र की दीर्घायु और मंगलकामना के लिए मनाती हैं।
2. इस दिन कौन-कौन से खाद्य पदार्थ वर्जित हैं?
गाय का दूध, दही, चावल और चीनी का सेवन वर्जित है।
3. क्या बछवारस का व्रत बिना पुत्र के किया जा सकता है?
यह व्रत विशेष रूप से पुत्रवती स्त्रियों द्वारा किया जाता है। पुत्र के जन्म के बाद ही इसे करने की परंपरा है।
4. उजमन का क्या महत्व है?
पुत्र जन्म या विवाह के उपलक्ष्य में बछवारस का उजमन किया जाता है, जो परिवार की समृद्धि का प्रतीक है।
बछवारस का पर्व मातृत्व, संतान प्रेम और गाय के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। इस पावन कथा को पढ़ने और जानने के बाद, अपने अनुभव और विचार हमारे साथ साझा करें। इसे अपने प्रियजनों के साथ जरूर शेयर करें ताकि इस अद्भुत परंपरा के बारे में सब जान सकें।
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